आज का हर उपभोक्ता स्मार्ट हो गया है और कोई भी सामान चाहे वह किताब खरीदने (buy books online) से पहले आॅफलाइन एवं आनलाइन की तुलना जरूर करता है। इसके बाद जो उसे सस्ता और सुलभ होता है वह खरीदता है। सस्ता और अधिक सुलभ होने के कारण ही आज ईकमर्स का व्यापार आसमान पर है। इसमें सभी व्यपारी शामिल हैं। अगर हम किताबों की बात करें तो प्रकाशक से लेकर डिस्ट्रीब्यूटर तक सभी आॅनलाइन बुक्स स्टोर (online bookstore) के साथ काम कर रहे हैं। कई प्रकाश और वितरक यह स्वीकार करते हैं कि उनके यहां की कुल बिक्री में से 10 फीसदी आज आॅनलाइन से ही हो रही है, जबकि उनकी फर्म को भी इस माध्यम से जुड़े 4-5 साल ही हुए हैं। वहीं यह सवाल भी उठता है कि क्या ये वही पारंपरिक खरीदार हैं, जिन्होंने अब नया जरिया अपनाया है? विशेषज्ञों, प्रकाशकों एवं वितरकों का मानना है, शायद नहीं। इन सभी का मानना है कि ‘ये उनके नए ग्राहक हैं।’ ज्यादातर नई पीढ़ी के ऐसे ग्राहक, जो नेट पर दूसरी तमाम चीजों की खोज-पड़ताल करते हुए पसंदीदा किताबों तक भी पहुंच और खरीद रहे हैं। यह बात हर कोई खिले चेहरे के साथ बयान करता है कि किताबों की आॅनलाइन बिक्री ने उनके लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खोल दिया है।
भारत में आॅनलाइन कारोबार लगभग 1.5 लाख करोड़ रु. सालाना से ऊपर पहुंच चुका है। इसमें किताबों के हिस्से का आंकड़ा तो ठीक-ठीक पता नहीं पर अंग्रेजी किताबों की बिक्री 4-5 साल पहले ही उत्साहजनक स्तर पर पहुंच चुकी थी। हिंदी में अब जाकर स्थिति थोड़ी चर्चा के काबिल बनी है। यह बात हर प्रकाशक मान रहा है कि आॅनलाइन सेल बढ़ रही है। किताबों की बेहतर आॅनलाइन बुक (online book) सेल के अपने फंडे हैं। मसलन, लेखक का चर्चित होना, उसका खुद आगे बढ़कर सोशल साइट्स पर किताब का प्रमोशन करना और प्रकाशक का भी आक्रामक रुख रखना। अंग्रेजी में चेतन भगत, रश्मि बंसल, अमीष त्रिपाठी जैसे लेखकों की किताबों के साथ यही होता रहा है। भगत के नए उपन्यास रिवोल्यूशन 20-20 के छपकर आने से पहले ही, बताते हैं कि आॅनलाइन 50,000 प्रतियों से ज्यादा के आॅर्डर मिल गए थे। हिंदी में यह स्थिति अभी अपवाद है।
अंग्रेजी और हिंदी में आॅनलाइन सेल के फर्क को जानकार भी रेखांकित करते हैं। खैर, इसमें अभी थोड़ा समय लगेगा। इसकी वजहें हैं। अधिकांश प्रकाशकों का कहना है कि हिंदी क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की उपलब्धता के कम होने के अलावा उसके उपयोग में हिचक भी है। आम राय यही बनती दिखती है, जैसा कि ‘हिंदी में संभावनाएं बहुत हैं’ पर उनके साकार होने में अभी समय लगेगा।
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