Tuesday 24 May 2016

आॅनलाइन शॉपिंग में यंगस्टर्स की डिमांड किताब और गैजेट्स

भारत में आॅनलाइन शॉपिंग का चलन दो तीन साल से बेहद तेजी से बढ़ रहा है। इस बढ़ती भागीदारी में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी यंगस्टर्स की है। इसमें वैसे किशोर सबसे ज्यादा हैं जो अभी-अभी किशोरास्था में प्रवेश किया है। टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) के एक सर्वे ने यंगस्टर्स को लेकर कई खुलासे हुए हैं जो आश्चर्यजनक है।  आॅनलाइन शॉपिंग की खुमारी दिल्ली के यंगस्टर्स के सिर चढ़कर बोल रही है। देश के 14 शहरों के किशोरों में दिल्ली के यंगस्टर्स आॅनलाइन शॉपिंग के मामले में सबसे आगे हैं। मुंबई के किशोर दूसरे, भुवनेश्वर के तीसरे और लखनऊ के किशोर चौथे नंबर पर हैं। अहम बात यह है कि आॅनलाइन शॉपिंग में जुटी यंगस्टर्स की ये फौज आॅनलाइन बुक्स स्टोर (online bookstore) से किताबों के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स को महत्व दे रही है। जबकि खिलौनों की खरीदारी सबसे निचले पायदान पर है। यह तथ्य टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) द्वारा कराए गए सर्वे में सामने आए हैं। सर्वे में 12,365 यंगस्टर्स को शामिल किया गया। सर्वे में दिल्ली के 79.4 फीसदी यंगस्टर्स ने स्वीकार किया कि वे आॅनलाइन शॉपिंग करते हैं। इसके बाद 74.3 फीसदी के आंकड़े के साथ मुंबई के यंगस्टर्स दूसरे और 74.2 फीसदी के आंकड़े के साथ भुवनेश्वर के यंगस्टर्स तीसरे नंबर पर हैं। चौथे नंबर पर 72.1 फीसदी के साथ लखनऊ के यंगस्टर्स हैं। 53 फीसद के साथ नागपुर के किशोर सबसे निचले पायदान पर हैं। अब सवाल यह है कि यंगस्टर्स आॅनलाइन शॉपिंग से क्या खरीद रहे हैं? सर्वे से पता चला है कि यंगस्टर्स पहले नंबर पर इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की खरीदारी कर रहे हैं और दूसरा नंबर किताबों का है। सभी 14 शहरों के स्तर पर देखें तो इलेक्ट्रनिक गैजेट्स खरीदने वाले यंगस्टर्स का फीसदी 64.5 फीसद है जबकि 61.2 फीसद यंगस्टर्स किताबें खरीदते (buy books online) हैं। मात्र 10.2 फीसदी यंगस्टर्स ने स्वीकार किया है कि वे आॅनलाइन शॉपिंग के माध्यम से खिलौने खरीदते हैं।
यह है टॉप शहर
रैंक    शहर    सर्वे में शामिल किशोरों का%
1.    दिल्ली            79.4
2.    मुंबई               74.3
3.    भुवनेश्वर         74.2
4.    लखनऊ            72.1


आॅनलाइन शॉपिंग में क्या खरीदते हैं यंगस्टर्स
रैंक    समान    सर्वे में शामिल किशोरों का%
1.    गैजेट्स        64.5
2.    किताब         61.2
3.    खिलौने        10.2

Friday 20 May 2016

किताबों का आॅनलाइन बिजनेस और हिन्दी-अंग्रेजी की किताबें

आज का हर उपभोक्ता स्मार्ट हो गया है और कोई भी सामान चाहे वह किताब खरीदने (buy books online) से पहले आॅफलाइन एवं आनलाइन की तुलना जरूर करता है। इसके बाद जो उसे सस्ता और सुलभ होता है वह खरीदता है। सस्ता और अधिक सुलभ होने के कारण ही आज ईकमर्स का व्यापार आसमान पर है। इसमें सभी व्यपारी शामिल हैं। अगर हम किताबों की बात करें तो प्रकाशक से लेकर डिस्ट्रीब्यूटर तक सभी आॅनलाइन बुक्स स्टोर (online bookstore) के साथ काम कर रहे हैं। कई प्रकाश और वितरक यह स्वीकार करते हैं कि उनके यहां की कुल बिक्री में से 10 फीसदी आज आॅनलाइन से ही हो रही है, जबकि उनकी फर्म को भी इस माध्यम से जुड़े 4-5 साल ही हुए हैं। वहीं यह सवाल भी उठता है कि क्या ये वही पारंपरिक खरीदार हैं, जिन्होंने अब नया जरिया अपनाया है? विशेषज्ञों, प्रकाशकों एवं वितरकों का मानना है, शायद नहीं। इन सभी का मानना है कि ‘ये उनके नए ग्राहक हैं।’ ज्यादातर नई पीढ़ी के ऐसे ग्राहक, जो नेट पर दूसरी तमाम चीजों की खोज-पड़ताल करते हुए पसंदीदा किताबों तक भी पहुंच और खरीद रहे हैं। यह बात हर कोई खिले चेहरे के साथ बयान करता है कि किताबों की आॅनलाइन बिक्री ने उनके लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खोल दिया है।
भारत में आॅनलाइन कारोबार लगभग 1.5 लाख करोड़ रु. सालाना से ऊपर पहुंच चुका है। इसमें किताबों के हिस्से का आंकड़ा तो ठीक-ठीक पता नहीं पर अंग्रेजी किताबों की बिक्री 4-5 साल पहले ही उत्साहजनक स्तर पर पहुंच चुकी थी। हिंदी में अब जाकर स्थिति थोड़ी चर्चा के काबिल बनी है। यह बात हर प्रकाशक मान रहा है कि आॅनलाइन सेल बढ़ रही है। किताबों की बेहतर आॅनलाइन बुक (online book) सेल के अपने फंडे हैं। मसलन, लेखक का चर्चित होना, उसका खुद आगे बढ़कर सोशल साइट्स पर किताब का प्रमोशन करना और प्रकाशक का भी आक्रामक रुख रखना। अंग्रेजी में चेतन भगत, रश्मि बंसल, अमीष त्रिपाठी जैसे लेखकों की किताबों के साथ यही होता रहा है। भगत के नए उपन्यास रिवोल्यूशन 20-20 के छपकर आने से पहले ही, बताते हैं कि आॅनलाइन 50,000 प्रतियों से ज्यादा के आॅर्डर मिल गए थे। हिंदी में यह स्थिति अभी अपवाद है। 
       अंग्रेजी और हिंदी में आॅनलाइन सेल के फर्क को जानकार भी रेखांकित करते हैं।  खैर, इसमें अभी थोड़ा समय लगेगा। इसकी  वजहें हैं। अधिकांश प्रकाशकों का कहना है कि हिंदी क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की उपलब्धता के कम होने के अलावा उसके उपयोग में हिचक भी है। आम राय यही बनती दिखती है, जैसा कि ‘हिंदी में संभावनाएं बहुत हैं’ पर उनके साकार होने में अभी समय लगेगा।