Wednesday 21 September 2016

आॅनलाइन बुक्स स्टोर के मुकाबले कहां हैं फुटपाथ की पुरानी किताबें

आज की बात हो या उस समय की जब हम लोगों के अनुसार किताबी कीड़ा हुआ करते थे। ऐसे में जब पुरानी किताबों (books)की बात हो तो वह दौर एक फिल्म की भांति मानस पटल पर गुजर जाता है। चाहे वह साहित्य की किताब हो या किसी सिलेबस की हम तो यहीं चाहते थे की कम से कम पैसा लगे और ज्यादा से ज्यादा उस किताब का उपयोग हो। इसके कई उदाहरण यादों के पन्नों में समेटा हुआ है। जैसे हम चौथी की परीक्षा देते तो परीक्षा से पूर्व हम किसी दोस्त या रिश्तेदार के बच्चों की पांचवी की किताब आधी कीमत पर ले लेते या तय कर लेते। वहीं दूसरी ओर अपनी चौथी की किताब तीसरी की परीक्षा दे रहे बच्चों को आधी कीमत पर बेंच देते। बस आज जमान बदल सा गया है। आज आॅनलाइन बुक्स स्टोर, (online bookstore) ई-बुक्स और रीडिंग डिवाइस के इस जमाने में ऐसे लोग और धंधे की अब थोड़ी बहुत जगह बच गई है। आज लोग घर बैठे आॅनलाइन बुक्स स्टोर से भारी यानी कभी-कभी तो 50 प्रतिशत तक डिस्काउंट पर बाई बुक्स आॅनलाइन (Buy books online) ले लेते हैं। बावजूद इसके मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, बेंगलुरु सहित ए और बी शहरों में फुटपाथ पर पुरानी किताबों का कारोबार अभी भी एक चोखा धंधा है। यहां किताबों के खुले बाजार में होमर और कालीदास जैसे दिग्गज लेखकों की किताबें बिकती हैं। कई पुस्तक विक्रेताओं का कहना है कि ईबुक्स, ई-रीडिंग डिवाइस और ऐप भी पुस्तक प्रेमियों के मन से छपी हुई किताबों का मोह तोड़ पाने में नाकाम रहे हैं और ऐसे किताब प्रेमी यहां से बहुत किफायती दामों में अपनी पसंदीदा किताब खरीदते हैं। हलांकि एक किताब विक्रेता ने बताया कि यह डिजिटल युग हमारे कारोबार के लिए एक चुनौती है, लेकिन अभी भी फुटपाथ पर बिकने वाली किताबों की पर्याप्त मांग है।                                            विशेषज्ञों का भी मानना है कि निश्चित तौर पर ई बुक्स, ई रीडिंग और कई ऐप जैसे डिजिटल उपकरण आने से पढ़ने वाले बहुत लोग किताबों से दूर जा रहे हैं। बावजूद इसके किताब विक्रेताओं ने भी उम्मीद नहीं छोड़ी है और किताब प्रेमियों को लुभाने के लिए नए-नए तरीके खोज निकाले हैं। विक्रेताओं के अनुसार शुरुआत में हम पुरानी किताबें बेचते हैं, जो 50 फीसद से भी ज्यादा सस्ती होती हैं। इसके अलावा भी वे अब अपने खरीदारों से पक्की दोस्ती बनाए रखने के लिए उन्हें किराए पर भी उनकी पसंदीदा किताबें देने लगे हैं। यह तरीका नए ग्राहक बनाने के लिए बहुत कारगर है। खास तौर पर छात्र इसके कारण बार बार हमारे पास ही आते हैं। उल्लेखनीय है कि महानगर में किताबों के इस सबसे बड़े खुले बाजार में गल्प, आत्मकथायें, फैशन, इतिहास, युद्ध और वन्यजीवन पर आधारित सभी प्रकार की किताबें 10 रुपए से 5,000 रुपए में मिल जाती हैं।

Monday 12 September 2016

हिन्दी की मशहूर कहानियां अब आॅडियो में भी

आज इंटरनेट की छोटी दुनिया में हिन्दी साहित्य के लिए अच्छी खबर है और फिर से हम अपनी संस्कृति की ओर लौटने लगे हैं। जब तक हमारे संस्कृति में लिखने की परंपरा नहीं थी तब तक हम कहानियां लोगों की जुबानी सुनते थे। आज फिर से वह दौर शुरू होने वाला है। क्योंकि जीवन की आपाधापी, सिकुड़ते वक्त और किताबों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे की चर्चा के बीच इंटरनेट पर हिन्दी साहित्य की कालजयी और भूली बिसरी कृतियों को आडियो स्वरूप में डालकर प्रौद्योगिकी की मदद से किस्सागोई की नई पहल हो रही है। इनमें प्रेमचंद, चंद्रधरशर्मा गुलेरी, सुदर्शन से लेकर कमलेश्वर, स्वयं प्रकाश और आधुनिक कहानीकारों की रचनाएं शामिल हैं। इसे आॅडियों में पिरोने का काम भी एक साहित्यकार ने ही किया है। अमेरिका में रहने वाले अनुराग शर्मा स्वयं कहानीकार हैं और पिछले कुछ वर्षों से ऐसे ही प्रयासों में संलग्न हैं।

250 से भी अधिक कहानियों का आॅडियो

उन्होंने प्रेमचंद, भीष्म साहनी सहित विभिन्न हिन्दी रचनाकारों की 250 से अधिक कहानियों के आॅडियो स्वरूप को आर्काइव डाट काम तथा अन्य प्लेटफार्म पर डाला है। इन कहानियों को कोई भी व्यक्ति सुन सकता है और डाउनलोड भी कर सकता है। उन्होेंने बताया कि कहानियों के इन आडियो संस्करण पर अच्छी प्रतिक्रिया मिली है।  अनुराग ने कहा कि वाचिक परम्परा बीच बीच में टूटती है। किन्तु यही परंपरा पुल भी बनाती है। मसलन, विदेश में पाकिस्तान के पाठक हिन्दी साहित्य और हिन्दी के पाठक उर्दू साहित्य को लिपि बाधा के कारण प्राय: पढ़ने में दिक्कत महसूस करते हैं। पर यदि इन भाषाओं के साहित्य को वे जब आडियो स्वरूप में सुनते हैं तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। वैसे यह प्रयास कई प्रकाशकों ने शुरू किया और वह आॅनलाइन बुक्स स्टोर (online bookstore) से लोग उसे (Buy books online)खरीद भी रहे हैं, लेकिन इस प्रकार का प्रयोग और फ्री में उपलब्धता पहली बार हुई है। इसके लिए अनुराग शर्मा बधाई के पात्र हैं।

कब हुई शुरुआत और कहां-कहां मनाया जाता है

हमारे देश में किस्सागोई का प्रचलन सभ्यता की शुरुआत से ही है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक और कुछ क्षेत्रों में आज तक यह परंपरा जारी है। वैसे किस्सागोई को उत्सव के रूप में मनाने की शुरूआत स्वीडन में 1991-92 में हुई, जब वहां 20 मार्च को राष्ट्रीय किस्सागोई दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। धीरे-धीरे किस्सागोई दिवस मनाने का यह सिलसिला सरहदों की सीमाओं को पार कर गया। 1997 में तो पश्चिमी आॅस्ट्रेलिया के पर्थ में किस्सागोई का पांच दिवसीय उत्सव मनाया गया। मैक्सिको एवं अन्य दक्षिण अमेरिकी देशों में भी 20 मार्च को राष्ट्रीय किस्सागोई दिवस मनाया जाने लगा। 2005 में पांच महादेशों के 25 देशों में यह दिवस आयोजित किया गया। 2009 से यूरोप, एशिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका,दक्षिणी अमेरिका एवं आॅस्ट्रेलिया, सभी महादेशों में यह दिवस मनाया जाने लगा।